वैश्विक उत्तरदायित्व बोध की चुनौती

इसके पहले तीन महीनों में विश्व के सभी देशों ने अपने को अप्रत्याशित स्थिति में पाया। एक अदृश्य वायरस-कोरोना ने विश्व में तहलका मचा दिया। इससे निपटने की रणनीति किसी के पास नहीं थी। मानव इतिहास में इस जैसा कोई उदाहरण कहीं नहीं दिखा। शायद दोनों विश्वयुद्ध भी ऐसा नहीं कर पाए होंगे। पहली बार हर देश प्रभावित हुआ। इस आक्रमण के विरुद्ध सभी एक साथ थे, कोई किसी के विरुद्ध नहीं था! केवल अनुमान ही लगाए जा रहे थे कि प्रकृति अब इस वायरस आक्रमण को कहां तक, कितनों तक और आगे कब तक ले जाएगी। सभी मानने लगे थे कि इस वायरस ने मानव जाती को स्पष्ट संदेश दिया है कि मनुष्य प्रकृति से अब और खिलवाड़ न करे, बहुत कुछ खोया जा चुका है, विनाश और लालच की इस होड़ को रुकना ही होगा। यह पृथ्वी मानव के अत्याचार सहते-सहते अब स्वयं जीर्ण-शीर्ण हो गई है, वह आहत है, मनष्य की लगातार बढ़ रही संग्रहण की भूख और घटती जा रही मानवीय संवेदना और क्षीण होते हुए मानवीय मूल्य प्रकृति के चक्र के इस तरह झकझोर चुके हैं कि उसका पुन- अपने नैसर्गिक स्वरूप में आना असंभव है। अनेक प्राकृतिक संसाधन जिस स्थिति में पहुंच चुके हैं, वह अब अपरिवर्तनीय हो चुकी है। मनुष्य ने अपने ही घर के रख- रखाव पर ध्यान न देकर उसे अपने ही रहने लायक नहीं रखा है, उसे बीमार कर दिया है। ऐसे में वह स्वयं स्वस्थ कैसे रह सकेगा? उसे रुकना होगा, गहन आत्मनिरीक्षण करना होगा। एक वायरस ने सारी मानव जाति को दिखला दिया कि उसकी ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियां और प्रकृति के रहस्यों को समझने का अभिमान कितना सीमित, संकुचित और अपूर्ण है! हमें स्वयं विज्ञान, तकनीकी, संचार तकनीकी, अंतरिक्ष भ्रमण जैसी बड़ी-बड़ी उपलब्धियां एकदम नगण्य लगने लगीं। कोविड-19 का टीका बनाने में समय लगेगा, उसे कम नहीं किया जा सकता है, तब तक सारे विश्व को घरों में रह कर प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं । आशा की किरण यही है कि वैज्ञानिक, सरकारें, संस्थाएं और व्यवस्थाएं पूरी तरह से स्थिति से निबटने के लिए कृतसंकल्प हैं, पूरी कर्मठता से लगे हैं। सभी को विश्वास है कि वे अंतत सफल होंगे। प्रकृति भी मनुष्य को यह समझाने में सफल होगी कि वह अपने असंयत आचरण को बदले, अपने नैसर्गिक कर्तव्यों को नजरअंदाज करने के दुष्परिणामों से आंखें न मूंदे! मनुष्य इस स्थिति में पहुंचा कैसे? ऐसा तो है नहीं कि सभ्यताओं के विकास में मनुष्य के मनुष्य से संबंधों और उसके प्रकृति के साथ संबंधों पर मनीषियों ने विचार-विमर्श कर भावी पीढ़ियों को रास्ता न दिखाया हो। वे तो हजारों वर्ष पहले से ही हमें आगाह कर चुके थे कि मनुष्य और प्रकृति के संबंधों की संवेदनशील डोर को तोड़ कर, अपरिग्रह के मूल्य को भुला कर और प्राकृतिक संसाधनों पर सभी के समान अधिकार के सिद्धांत से आंख मूंद कर मानव जाति को केवल विनाश ही हासिल होगा! मनुष्य और प्रकृति की पारस्परिक निर्भरता को प्राचीन भारतीय संस्कृति और ज्ञानार्जन परंपरा में अत्यंत गहराई से समझा गया था। यह कर्तव्य मनुष्य का था कि प्रकृति से वह उतना ही ले, जितना वापस किया जा सके। भारत की इस संस्कृति और सभ्यता के वैश्विक उत्तरदायित्व को महात्मा गांधी ने एक अमर वाक्य में समेट दिया था-'प्रकृति के पास सभी की आवश्यकता पूर्ति के लिए संसाधन उपलब्ध हैं, मगर एक के भी लालच पूर्ति के लिए नहीं।' वे भारत को कर्मभूमि मानते थे, भोग भूमि नहीं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक सहयोग, परस्परता और समानता को मानव जाति को बचाए रखने के लिए आवश्यक माना गया और और अनेक प्रयास हुए, संयुक्त राष्ट्र, सुरक्षा परिषद्, यूनेस्को जैसी संस्थाएं बनीं। मगर मानव मूल्यों की स्थापना की आवश्यकता और अध्यात्म के महत्त्व को पारस्परिक व्यवहार में प्राथमिकता न देना सभी पर भरी पड़ा। उदाहरण, अहिंसा के सिद्धांत से सहमति सभी राष्ट्रों ने दी, मगर तैयारियां तो युद्ध की होती रहीं, और आज भी हो रहीं हैं। वैज्ञानिक और विचारक बहुत वर्षों से आगाह कर रहे थे कि पृथ्वी गृह के समक्ष अनेक संकट उभर रहे हैं जो कभी भी विकराल रूप ले सकते हैं। इन पर गहन चर्चाएं और विचार- विमर्श वैश्विक स्तर पर लगातार होते रहे हैं, मगर अधिकांश विकसित देश सर्वसम्मत निर्णयों पर भी राजनीति ही करते रहे। ऐसे विमर्शों में गांधी का संदर्भ आना लगभग अनिवार्य रहता है। 1920 गांधी ने कहा था-'मैं अव्यावहारिक भविष्यदृष्टा नहीं हूं, मैं अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी मानता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है, वह तो सामान्य लोगों के लिए है।' गांधी यह सब इसलिए कह सके, क्योंकि 'मेरे सभी निष्कर्ष व्यक्तिगत अनुभव से उपजे हैं, मैने इन्हें इतिहास नहीं लिया है जिसका मेरी शिक्षा में बहुत छोटा योगदान है।' सत्य के प्रति उनकी आस्था न बदली, न धूमिल हुई, क्योंकि 'यदि हम धर्म का अर्थ सत्य और अहिंसा अथवा केवल सत्य ही करें, तो काफी है। अहिंसा सत्य के पेट में समाई हुई है।' वे अपेक्षा करते थे कि यदि सभी शिक्षक सत्य और अहिंसा का पालन करें, तो नई पीढ़ी धर्म यानी सदाचरण, जो सभी पंथों को स्वीकार्य है, को पूरी तरह अपनाएगी। गांधी के धर्म का मर्म वही था, जिसमें हर व्यक्ति शामिल था, भले ही उसका पंथ कुछ भी हो! वे मानव धर्म के अनुयायी थे। धर्म और पंथिक विविधताओं को जितना गांधी ने समझा था, उतना शायद ही उनके अन्य किसी सहयोगी ने समझा हो। 26 जून 1928 को उन्होंने लिखा था- अगर हर एक धर्म के प्रति जो वास्तव में धर्म , अधर्म नहीं, हम विद्यार्थियों के मन में आदर, उदारता और प्रेम उत्पन्न करना चाहते हैं, तो उसके सिद्धांतों का ज्ञान हमें अवश्य देना चाहिए।' इस प्रयास में जीवन के प्रारंभिक संवेदनशील वर्षों में सब धर्मों की समानताएं जानने से सभी के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है जो सहयोग और समता का आधार बनता है। इसी से मानव धर्म की जड़ें गहरी होती हैं और विस्तार लेती हैं। कोरोना जैसी आपदाएं इस पर ध्यान नहीं देती हैं कि आज सारे विश्व में पारस्परिक विश्वास और असहनशीलता के कारण अनेक विषम परिस्थितयां पैदा हो गई हैं, उसके आक्रमण में कोई भेदभाव नहीं है। उसके समक्ष विकसित देश भी उतने ही निरीह लगे जितने गरीब देश! सत्ता के स्तर पर सबसे अधिक वैश्विक संसाधन तो युद्ध, उसकी तैयारी और अपनी धाक जमाने में ही लग जाते हैं। इसी कारण शिक्षा की गुणवत्ता, मानवीय मूल्यों का अधिग्रहण और चरित्र निर्माण जैसे पक्ष कमजोर होते जा रहे हैं। शोध-शालाएं और डाक्टर करोना पर तो विजय प्राप्त कर लेंगे, मगर मनुष्य के समक्ष उभरती चुनौतियों के मूल कारणों को समझ कर उन्हें जड़मूल से मिटाने के प्रयास ही दीर्घकालीन और समग्र समाधान दे सकेंगे। गांधी का पाश्चात्य सभ्यता का विरोध वास्तव में उस 'विचारहीन और विवेकहीन नकल' का था, जो भारत में भी यह मानकर की गई कि हम केवल उसी के लायक हैं! भारत अपनी श्रेष्ठता को न भूले, उसकी पीढ़ियां यहां की सभ्यता की निरंतरता और उसकी सर्व-स्वीकार्यता और समाहित करने की क्षमता को जानें, परखें और सम-सामयिक संदर्भ में विश्लेषित करें, तो भारत में विकटतम स्थितयों से स्वयं निकल सकने की ही क्षमता तो होगी ही, वह अन्य को भी राह दिखा सकेगा। क्या इस कठिन समय में हमें अपने बड़े वैश्विक उत्तरदायित्व का बोध नहीं हो रहा है? देश के आत्मनिरीक्षण का यह ऐतिहासिक अवसर है।